Monday 19 May 2014

हम फिर आएंगे..

अभी आँख खुली, मुँह भी नहीं धोया - बस साथ मिला तो निकल जाते थे
इधर गली की गरमा-गरम जलेबियाँ, उधर पुल के नीचे मैंगो आइसक्रीम खाते थे

साइकिल के पेडल पर सवार, दो-दो को ढोकर लखनऊ की गड्ढों भरी सड़कों पर
चल पड़ते थे अपनी छोटी सी दुनिया के नज़ारे आँखों में भर

चार रोज़ पुराने किस्सों में साहित्य बनाते थे,
और अठन्नियाँ जोड़ते चले तो हम अपनी गणित भी यहीं लगाते थे

इक वो कल था जहाँ अपनी मसरूफियत में घंटे-पहर, दिन-रात हो जाया करते थे.…
और एक आज है जो एकटक देखो तो घड़ी के कांटे भी मख़्सूस मज़मूनों पर ही टिक-टिक करते हैं!

ऐसा तो नहीं है की हम उस सफर पर फिर से जाना नहीं चाहते
दो की  चार कर अपनी महफ़िल में अनायास यूँ ही बतियाना नहीं चाहते

अरे कोई समझाता हमें की रास्ता तो मंज़िल की ओर निकल ही जाता है
नादानों! ये वक़्त जो गुज़रा तो फिर पलट कर नहीं आता है

बस यूँ कह दें - कि गर कोई फ़लसफ़ा उस उमर में बना जाते
तो कैसे बचपन की उस नादानी में खो पाते?

थोड़ा ग़म है, उस बेफिक्री के एहसास को शायद भूल गए हैं
कुछ कर-गुजरने की बारिश में लकड़ी जैसे फूल गए हैं

पर अपनी ज़िद पर भी क्या खूब ऐतबार है- अपने यार के साथ वो ख़ुशी फिर देखेंगे-
ज़िन्दगी के चूल्हे पर मुस्कुराहटों की मद्धम आंच में दोस्ती की नरम रोटी फिर सेकेंगे!

हम फिर आयेंगे, फिर एक बार तड़के ही छज्जे पर लटक कर देखंगे, इस बार वो आवाज़ देंगे
तब न हम कुछ बोलेंगे, न वो कुछ पूछेंगे - फिर अपनी वही धुन - हम अपना वही साज़ छेड़ेंगे