Friday 30 March 2018

confused नज़्म

न कुछ मिसालें देती है
न कुछ जताना ही चाहती है -
सवाल भी नहीं इसके ज़हन में कोई !

बस लफ़्ज़ हैं,  ३ + २ के सोफ़े पर
पूरी पलटन ठस कर बिठा रक्खी है
इस छोटे से पन्ने में..
जल्दी में हैं सारे, कि रस्में अदा करें
और चलते बनें भाईसाब -
रात जवाँ है अभी,
सपनों के casting director से
सामना पड़े तो
तो कुछ काम-धाम हाथ लगे !

बड़ी confused नज़्म है भई!
chronological order भी नहीं समझती;
वक़्त को ऊन के गोले सा लपेट कर
ये कैसा स्वेटर बुना है,
कि इसमें सर भी नहीं घुसता मेरा ?
sense of humor भी बैठा सा ही है !

रात के २ बजे हैं,
कुछ बयां करना था, भूल गया !
अब सच लिखूँ, तो यही है..

Thursday 15 March 2018

भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता?

I

किसी बात पर भौंहें तनी हैं गाँव में;
बाबा ने बोला किवाड़ बँद रखने को।

"अपनी बिरादरी का है वो
दम तो दिखाना होगा इन लोगों को"
"कुछ और लोग जुटा लो-
कोई पूछेगा नहीं ज़्यादा"
"अरे डर मत.. पहचानेगा कौन?"

भीड़ में कुछ चेहरे थे वो
बाबा के खून के छींटे थे माथे पर
गुस्सैल आँखें फट कर बाहर निकलतीं
साँसों से खौफ़ छूटता था..
पर भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता!
मज़हब की दुकानों पर
नक़ाब भी बिकते होंगे शायद..

II

रोज़ाना इधर से निकलना होता है
काम ज़्यादा था, आज कुछ देर हुई
कुछ डर सा लगता है!
ये लोग ठीक नहीं लग रहे ..

"पकड़, पकड़ कर रख इसको"
"दुपट्टा खींच.. मुह पर बाँध उसके"
"अरे डर मत.. पहचानेगा कौन?"

भीड़ में कुछ चेहरे थे वो
मेरी चीख़ें सुन जिनमें पलकें भी न झपकी थीं
उन वहशियाना शक़्लों से लार टपकती थी
पर भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता!
जंगली कुत्तों को बोटी खिलाने से पहले
कालिख की परतें चढ़ाते होंगे शायद..