Thursday 15 March 2018

भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता?

I

किसी बात पर भौंहें तनी हैं गाँव में;
बाबा ने बोला किवाड़ बँद रखने को।

"अपनी बिरादरी का है वो
दम तो दिखाना होगा इन लोगों को"
"कुछ और लोग जुटा लो-
कोई पूछेगा नहीं ज़्यादा"
"अरे डर मत.. पहचानेगा कौन?"

भीड़ में कुछ चेहरे थे वो
बाबा के खून के छींटे थे माथे पर
गुस्सैल आँखें फट कर बाहर निकलतीं
साँसों से खौफ़ छूटता था..
पर भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता!
मज़हब की दुकानों पर
नक़ाब भी बिकते होंगे शायद..

II

रोज़ाना इधर से निकलना होता है
काम ज़्यादा था, आज कुछ देर हुई
कुछ डर सा लगता है!
ये लोग ठीक नहीं लग रहे ..

"पकड़, पकड़ कर रख इसको"
"दुपट्टा खींच.. मुह पर बाँध उसके"
"अरे डर मत.. पहचानेगा कौन?"

भीड़ में कुछ चेहरे थे वो
मेरी चीख़ें सुन जिनमें पलकें भी न झपकी थीं
उन वहशियाना शक़्लों से लार टपकती थी
पर भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता!
जंगली कुत्तों को बोटी खिलाने से पहले
कालिख की परतें चढ़ाते होंगे शायद..

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