Tuesday 31 October 2017

डायरी का पन्ना

उस रात न जाने नन्ही सबा को क्या सूझी,
अटारी की खिड़की धकेल, आ गयी घर में !
नींद में ऊँघती, अपनी शरारत में
उलट-पलट कर मेरी डायरी,
इक पन्ने पर जा अटकी !

डायरी का एक पन्ना मोड़ कर रखा था,
वो अक्सर तुम्हारा ज़िक्र करता है..

कभी कोई हसीं किस्सा तुम्हारा,
कुछ तुम्हारे लहराते हाथों की बतियाँ;

ज़ुल्फ़ों पर टिकती-फिसलती
महफ़िलों में नज़रें,
तुम्हारी गीली मुस्कान में घुलते
मेरे शाम-ओ-सहर..

डायरी का वो पन्ना मोड़ कर रखा था,
अब अक्सर तुम्हारा ज़िक्र करता है..

जो पिरोये थे रेशम की तहरीर में बरसों पहले
अल्फ़ाज़ वो लुढ़क कर सिमटे हुए थे कोनों में
यूँ तो मेरी ही सुखन दोहराता था, पर
डायरी का जो पन्ना मोड़ कर रखा था -
कभी लगता है तुम्हें मुझसे ज़्यादा जानता है..
आज, शायद!

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