Sunday, 23 November 2014

वो कटी पतंग..

आसमान में बेसुध सी,
चौवाई में बहती इक नए सवेरे की ओर
जूझ रही थी, हो रही थी मलंग
वो कटी पतंग..

आखिर उसका मूल छूटा था!
अपनी गश्त खो उसका अभिमान टूटा था;
ख्यालों में, हर पल खोती अलंग,
वो कटी पतंग..

सुबह की रौशनी में ऊंचे-नीचे पेड़ों पर से गुज़रती,
पत्तों पे रखी ओस की बूंदों को चांदी सा चमकता देख
कुफ़राना, फिर भी बहती हवा के संग -
वो कटी पतंग

सोचे वो - मेरा एक आसमाँ है, और मैं आज़ाद;
इक डोर की रहमत हो जाऊं, या अपने सितारे खुद चमकाऊँ
मैं तो रसिया - लपेट लूँ दुनिया के रंग,
मैं कटी पतंग..

इस पल में घुलना ही मेरा निसर्ग हो जाए
इस सफर पे हो जाऊं निसार,
फलक की हदों को चीर दूँ - नाज़ करें मुझ पर वो
मैं एक कटी पतंग..

कि देखो न, एक नन्ही चिड़िया
अपने घरौंदे के झरोखे से झांकती है
सोचे यही, मैं भी हो जाऊं
इक कटी पतंग....


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