सामने तो होश रहता नहीं
रात थकी नींद-भरी आँखों से
रुख़सत ले जाती है,
और सुबह अपने गढ़े सवालों में
तुम्हारे हाल पूछती है,
बातें तुम्हारी जारी रहती हैं..
पर कुछ समझने-बताने को
होश रहता कहाँ है ?
सर्द रातों में
कमरे की ceiling पर जम कर
ठहर जाते हैं तुम्हारे कहे लफ्ज़ -
दो उँगलियों से एक सिरा पकड़
ओस को फटकारता हूँ,
तुम्हारे perfume सी महकती
तुम्हारी नरम-गरम बातों को
हाथों से छूकर समझता हूँ !
तब होश वापस आता है..
रात थकी नींद-भरी आँखों से
रुख़सत ले जाती है,
और सुबह अपने गढ़े सवालों में
तुम्हारे हाल पूछती है,
बातें तुम्हारी जारी रहती हैं..
पर कुछ समझने-बताने को
होश रहता कहाँ है ?
सर्द रातों में
कमरे की ceiling पर जम कर
ठहर जाते हैं तुम्हारे कहे लफ्ज़ -
दो उँगलियों से एक सिरा पकड़
ओस को फटकारता हूँ,
तुम्हारे perfume सी महकती
तुम्हारी नरम-गरम बातों को
हाथों से छूकर समझता हूँ !
तब होश वापस आता है..
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