कोनों में निरर्थक शब्दों के जाल बुने हैं
खूँटी पर कटे-फटे मनोरहस्य के छंद टंगे हैं
फ़र्श पर बिखरे प्रसंग के टुकड़े हैं
बक्से में पड़े कुछ व्यंग्य सिकुड़े हैं
छान पर कुछ जंग लगे अलंकार के तार हैं
प्रेम-भाव की सीलन में तर दीवार हैं
समय की अटारी में, अनदेखे से, वे -
गुज़रती हो जब तुम इधर से, तुम्हारे पॉंव की आहट पर
रोशनदान से झाँक कर देखा करते हैं सब
फिर कान में मेरे धीरे से कहते हैं, यहां जगह नहीं है हमारी -
हमे खींचिये हाथों से, कलम से, कागज़ पर!
खूँटी पर कटे-फटे मनोरहस्य के छंद टंगे हैं
फ़र्श पर बिखरे प्रसंग के टुकड़े हैं
बक्से में पड़े कुछ व्यंग्य सिकुड़े हैं
छान पर कुछ जंग लगे अलंकार के तार हैं
प्रेम-भाव की सीलन में तर दीवार हैं
समय की अटारी में, अनदेखे से, वे -
गुज़रती हो जब तुम इधर से, तुम्हारे पॉंव की आहट पर
रोशनदान से झाँक कर देखा करते हैं सब
फिर कान में मेरे धीरे से कहते हैं, यहां जगह नहीं है हमारी -
हमे खींचिये हाथों से, कलम से, कागज़ पर!
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