बादामी रंग की मट-मैली शॉल ओढ़े हुए,
बरसों से उलटी करवट सोया ये रेगिस्तान
लाख आवाज़ दो, न कोई जवाब मिलता था
न खातिर, न मेहमान-नवाज़ी..
बूझ नहीं रहा था
इसे किस बात का मान-गुमान है?
इस hour-glass की सारी रेत रिस कर
हमारे पाँव तले बस गयी थी,
ढलती शाम को उसी वक़्त के ढर्रे पर बैठे -
अपने हाथों से नरम-गरम रेत कुरेद रहे थे,
और नज़रें अटकी थी आसमान में
टिम-टिमाते तारों पर;
तब महसूस हुआ - जैसा कहीं न था,
इस रेत के समंदर में
कुछ ऐसा इत्मीनान है!
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