Sunday, 8 May 2022

रेत का समंदर

बादामी रंग की मट-मैली शॉल ओढ़े हुए,

बरसों से उलटी करवट सोया ये रेगिस्तान 

लाख आवाज़ दो, न कोई जवाब मिलता था

न खातिर, न मेहमान-नवाज़ी..

बूझ नहीं रहा था 

इसे किस बात का मान-गुमान है?

 

इस hour-glass की सारी रेत रिस कर

हमारे पाँव तले बस गयी थी,

ढलती शाम को उसी वक़्त के ढर्रे पर बैठे -

अपने हाथों से नरम-गरम रेत कुरेद रहे थे,

और नज़रें अटकी थी आसमान में

टिम-टिमाते तारों पर;

तब महसूस हुआ - जैसा कहीं न था,

इस रेत के समंदर में

कुछ ऐसा इत्मीनान है! 

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