Friday, 21 December 2018

पुणे - II


बार बार मुड़ कर
पीछे देखते हो
कि मीटर तो चालू  है ना !

चालू ही है
रिक्शा वाले भैय्या ...
वो पतलून हमारी ही है
जिसकी पिछली जेब का सूत उधेड़
तुम्हारा चालू मीटर लोट-लोट कर
अपनी रीडिंग बुन रहा है..

टर्रररररक-टक
टर्रररररक-टक

अरे हाँ...
बैंक के खाते में बचा-कुचा
पिछली दीवाली का bonus है
अब हाफ-रिटर्न बोल के
डाका भी डाल  दो!

Thursday, 20 December 2018

वक़्त का शहर

शहर भी उनका, पैमाइश भी उनकी
वक़्त के इस शहर में बातें कभी बीती नहीं होती

यहाँ हर गुज़रे लम्हे के अर्ज़ पर एक इमारत खड़ी है
हर ख़्वाबीदा मुस्कान के गुलज़ार खिले हैं
उन लावारिस सवालों की बड़ी-बड़ी हवेलियाँ -
खँडहर हुईं, पर भूली नहीं गयी..

यहां साला सब ही कुछ landmark सा है
रास्ता भटकने जाएँ भी तो कहाँ जाएँ !





Tuesday, 28 August 2018

दुनिया साली depressing है

टीवी पर न्यूज़ नहीं देखते अब -
रंग-बिरंगे फुदकते footage,
खोटी नीयतों के opinion
और कुत्ते-बिल्ली के चाटे गोबर के कंडे?
ये कुछ नहीं बदलते !

कल फ़ेसबुक पर एक वीडियो
सामने पड़ गया;
जो देखा
वो सीने में गड़ गया..
कठुआ का किस्सा ही ऐसा है!
क्यों देख रहे थे हम ये?
किसी को awareness फैलाना है-
के अपना पक्ष जताना है
अच्छाई को बुराई से जिताना है?

पर ऐसा होता कहाँ है..
इसीलिए साली दुनिया depressing है !

कुछ होता है कहीं
और सोशल मीडिया पर
तीन पेटिशन रिक्वेस्ट आते हैं
किसको भई ?
parliament के सफेदपोशों को -
तमाशबीन हैं साले;
क़ागज़ के पुर्जों के
popcorn बना कर गटका करते हैं
फिर आपके खून-पसीने का एक chilled सिप
...आह!
This session is adjourned.


तभी याद आता है
ये जो सुलझे से बने घूमते हैं -
रगों में हमारे भी लावा बहता है!
बोलने का मौका दीजिये
फिर  volcano भी फटता है..
हम लाख ख़याल बुन लें
जोश भरे लफ्ज़ चुन लें
पर जब तक कुछ बदलता नहीं
दुनिया साली depressing ही है !





Friday, 30 March 2018

confused नज़्म

न कुछ मिसालें देती है
न कुछ जताना ही चाहती है -
सवाल भी नहीं इसके ज़हन में कोई !

बस लफ़्ज़ हैं,  ३ + २ के सोफ़े पर
पूरी पलटन ठस कर बिठा रक्खी है
इस छोटे से पन्ने में..
जल्दी में हैं सारे, कि रस्में अदा करें
और चलते बनें भाईसाब -
रात जवाँ है अभी,
सपनों के casting director से
सामना पड़े तो
तो कुछ काम-धाम हाथ लगे !

बड़ी confused नज़्म है भई!
chronological order भी नहीं समझती;
वक़्त को ऊन के गोले सा लपेट कर
ये कैसा स्वेटर बुना है,
कि इसमें सर भी नहीं घुसता मेरा ?
sense of humor भी बैठा सा ही है !

रात के २ बजे हैं,
कुछ बयां करना था, भूल गया !
अब सच लिखूँ, तो यही है..

Thursday, 15 March 2018

भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता?

I

किसी बात पर भौंहें तनी हैं गाँव में;
बाबा ने बोला किवाड़ बँद रखने को।

"अपनी बिरादरी का है वो
दम तो दिखाना होगा इन लोगों को"
"कुछ और लोग जुटा लो-
कोई पूछेगा नहीं ज़्यादा"
"अरे डर मत.. पहचानेगा कौन?"

भीड़ में कुछ चेहरे थे वो
बाबा के खून के छींटे थे माथे पर
गुस्सैल आँखें फट कर बाहर निकलतीं
साँसों से खौफ़ छूटता था..
पर भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता!
मज़हब की दुकानों पर
नक़ाब भी बिकते होंगे शायद..

II

रोज़ाना इधर से निकलना होता है
काम ज़्यादा था, आज कुछ देर हुई
कुछ डर सा लगता है!
ये लोग ठीक नहीं लग रहे ..

"पकड़, पकड़ कर रख इसको"
"दुपट्टा खींच.. मुह पर बाँध उसके"
"अरे डर मत.. पहचानेगा कौन?"

भीड़ में कुछ चेहरे थे वो
मेरी चीख़ें सुन जिनमें पलकें भी न झपकी थीं
उन वहशियाना शक़्लों से लार टपकती थी
पर भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता!
जंगली कुत्तों को बोटी खिलाने से पहले
कालिख की परतें चढ़ाते होंगे शायद..