Tuesday, 31 October 2017

डायरी का पन्ना

उस रात न जाने नन्ही सबा को क्या सूझी,
अटारी की खिड़की धकेल, आ गयी घर में !
नींद में ऊँघती, अपनी शरारत में
उलट-पलट कर मेरी डायरी,
इक पन्ने पर जा अटकी !

डायरी का एक पन्ना मोड़ कर रखा था,
वो अक्सर तुम्हारा ज़िक्र करता है..

कभी कोई हसीं किस्सा तुम्हारा,
कुछ तुम्हारे लहराते हाथों की बतियाँ;

ज़ुल्फ़ों पर टिकती-फिसलती
महफ़िलों में नज़रें,
तुम्हारी गीली मुस्कान में घुलते
मेरे शाम-ओ-सहर..

डायरी का वो पन्ना मोड़ कर रखा था,
अब अक्सर तुम्हारा ज़िक्र करता है..

जो पिरोये थे रेशम की तहरीर में बरसों पहले
अल्फ़ाज़ वो लुढ़क कर सिमटे हुए थे कोनों में
यूँ तो मेरी ही सुखन दोहराता था, पर
डायरी का जो पन्ना मोड़ कर रखा था -
कभी लगता है तुम्हें मुझसे ज़्यादा जानता है..
आज, शायद!

Tuesday, 19 September 2017

Rise

I climb over the hillock of my mould,
Over the blazing settlements of the inherited valley
And the fire of conformity that smoulders the times
Over the ashes of presumptions floating in mid-air
Over the dense smoke clouds of darkness and ignorance


In my resilience
And my grit-
I rise
Above it all
And look down
Upon the blueprints of destiny
To pave my own way..
Here and now,
I rise..

Monday, 21 August 2017

बॉम्बे-कूच

सुना है इक शहर है,
सबको अपना बना लेता है;
कि लोग यहाँ आकर
कुछ अपना सा ढूंढ ही लेते हैं !

मैं बेसिम्त-बेवक़्त चला मुसाफिर हूँ..
या कोई अनाड़ी बंजारा ?

या वो शहर और होते हैं,
या वो लोग और होते हैं !



Thursday, 10 August 2017

ऋचा के लिए


पॉकेटमार थी कोई !
समुन्दर किनारे walk पर निकला था, ढलती शाम थी
आस्माँ के कोनों से पिघलता सोना बह रहा था

सामने से आयी वो,
जेब में हाथ डाले, भीड़ में मुस्कुराती
horizon की सिलाई पर ब्लेड मारकर
मेरी रातें चुरा ले गयी!






Wednesday, 19 July 2017

लिबास..

काले कौए parliament की
छत पर बैठे सत्याग्रह तो नहीं करते!
इन पर सफ़ेद कमीज चढ़ा दो
तो निचली मंज़िल में बैठ
विधि-विधान लिख डालें..

वाह री लिबास!

Friday, 14 July 2017

समय की अटारी

कोनों में निरर्थक शब्दों के जाल बुने हैं
खूँटी पर कटे-फटे मनोरहस्य के छंद टंगे हैं
फ़र्श पर बिखरे प्रसंग के टुकड़े हैं
बक्से में पड़े कुछ व्यंग्य सिकुड़े हैं
छान पर कुछ जंग लगे अलंकार के तार हैं
प्रेम-भाव की सीलन में तर दीवार हैं

समय की अटारी में, अनदेखे से, वे -
गुज़रती हो जब तुम इधर से, तुम्हारे पॉंव की आहट पर
रोशनदान से झाँक कर देखा करते हैं सब
फिर कान में मेरे धीरे से कहते हैं, यहां जगह नहीं है हमारी -

हमे खींचिये हाथों से, कलम से, कागज़ पर!








Saturday, 24 June 2017

जून के दिन

आँखें मसलते हुए,
मुँह में टूथब्रश दबा कर
चादर को तह मारी है आज;
बस, पौधों को पानी देकर
फुर्सत हो जाना है अब..

पर ज़रा दिल बैठता है;
जून का महीना ख़त्म होने को है
और छुट्टियों की उलटी गिनती भी  -
कुछ याद नहीं आ रहा!
Geography की टीचर ने कहीं  
Holiday Homework तो नहीं दे रक्खा?

चौखट को पाँव लांग नहीं पाते
कि अंदर से आवाज़ आती है-
"आधा किलो दही लेते आना!"
- कढ़ी बनेगी आज तो,
कल बेसन भी तो मंगाया था!

उधर बरामदे में key hanger पर
एक ख़ाना खाली है,
पापा दफ्तर निकल गए होंगे;
अरे, छुट्टी-छुट्टी  चलेगा आज,
उस दिन कैप्टेन व्योम पर तो
डीडी समाचार लीप दिए गए थे!


जो रहता है सो घड़ी में शाम के पाँच का इंतज़ार 
लखनऊ की लू - और मम्मी का कर्फ्यू;
क्रिकेट खेलने बुलाने जाओ तो एक दोस्त की दादी
रूह-आफ्ज़ा का शरबत पिलाती हैं,
सोचता हूँ उसी को अपना best-friend बना लूँ..


बस आईने में शक्ल देखो तो
सब बदला-बदला लगता है..
समझ नहीं आता,
वॉश-बेसिन पर लटकी वो मकड़ी
क्यूँ नीचे उतर कर
डराने नहीं आती अब?

ओह, बड़ा हो गया हूँ!


Wednesday, 31 May 2017

पूना - I

याद है जब मेरे कंधे तक आता था
आज आठ साल बीते,
इस नन्हे बरगद ने
अपनी जड़ें छोड़नी शुरू कर दी हैं

रुतबा ऐसा जैसे
शहर की इस कोने से इसने आसमान उठा रखा हो
स्टेशन जाकर मोची से ब्रुश लगवा 
अपने नए पत्ते चमका लाया है!

एक humming bird अक्सर इसकी शाखों पर आकर
घंटों बैठा करती है;
शायद मेरी ही तरह
कुछ पुराने दिनों का हिसाब मांगने वापिस आती है..


Monday, 3 April 2017

Under The Tree



Under the tree of infinite wisdom, there could be no morbid self-consciousness.

The tree stood in all its might with its head held up high, every sinew in the unscathed torso strengthened by the burden of experience - its outstretched arms drilled deep into the soil pulling the ground closer with an innate sense of belonging.

Under the tree, the soil was warm and humble. An ant-trail marched upwards in sync to the bird calls tuned to the accordion played by the easterlies, each paying their tributes to the wise one.

No questions. No rhetoric.


An effortless surrender. A transparent conscience. There is little that could go wrong.

A person cannot falter.  A person cannot lie.

In the waking, the doubts and fears will have dissolved into thin air. Very few things would matter then.

The mystique of self-realization. A sense of gratitude. And the sound of silence.

Wednesday, 29 March 2017

होश रहता कहाँ है?

सामने तो होश रहता नहीं
रात थकी नींद-भरी आँखों से
रुख़सत ले जाती है,
और सुबह अपने गढ़े सवालों में
तुम्हारे हाल पूछती है,
बातें तुम्हारी जारी रहती हैं..
पर कुछ समझने-बताने को
होश रहता कहाँ है ?


सर्द रातों में
कमरे की ceiling पर जम कर
ठहर जाते हैं तुम्हारे कहे लफ्ज़ -
दो उँगलियों से एक सिरा पकड़
ओस को फटकारता हूँ,
तुम्हारे perfume सी महकती
तुम्हारी नरम-गरम बातों को
हाथों से छूकर समझता हूँ !

तब होश वापस आता है..